
वाराणसी। काशी की पहचान जहां धार्मिक आस्था, अध्यात्म और परंपराओं से है, वहीं यहां के मेलों की भी अपनी अनोखी छटा है। इन्हीं में से एक है दीपावली की शाम से मंडुआडीह क्षेत्र में लगने वाला प्रसिद्ध और प्राचीन “भेले का मेला” जिसे आर्युवेदिक मेला भी कहा जाता है। यह मेला न केवल काशी बल्कि आस-पास के जिलों के लोगों के बीच भी परंपरा और स्वास्थ्य का प्रतीक बन चुका है।
मंडुआडीह के माडवी तालाब के पश्चिमी रास्ते पर लगने वाला यह मेला भारत की प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की झलक प्रस्तुत करता है। कहा जाता है कि यहां लगने वाला मेला में मिर्जापुर, प्रतापगढ़ और आसपास के घने जंगलों से भेले नामक फल लाया जाता है। मेला में इस फल से निकलने वाला रस यानी “दूध” कई तरह की गंभीर बीमारियों में लाभकारी माना जाता है। माना जाता है कि मेला में आये हुए लोग इसके सेवन से पुराने से पुराने दमा, अस्थमा और गठिया जैसे रोगों में राहत मिलती है। मेला में दुकान लगाने वाले
कैलाश सोनकर और उनका परिवार पीढ़ियों से इस परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। कैलाश बताते हैं कि याद नहीं कि हमारी कितनी पीढ़ियां इस मेले में भेले का रस बेचती आ रही हैं। आज उनके साथ उनकी पत्नी कुमारी सोनकर और पुत्र विजय सोनकर भी इस पारंपरिक चिकित्सा विधि को आगे बढ़ा रहे हैं। रस तैयार करने की प्रक्रिया भी रोचक है—पहले इसे उबाला जाता है, फिर मरीज के मुंह के अंदर गाय के दूध से बने देसी घी का लेप लगाया जाता है। इसके बाद एक या दो चम्मच रस पिलाया जाता है। सेवन के बाद मरीज को पंद्रह दिनों तक मसाले और नमक से परहेज करने की सलाह दी जाती है।
मेले में भेले के अलावा कैथ नामक जंगली फल की भी बिक्री होती है। इसके गूदे के सेवन से पेट संबंधी बीमारियां जैसे गैस और अपच में तुरंत राहत मिलती है।
भेले का मेला केवल आयुर्वेदिक उपचार का केंद्र नहीं, बल्कि सामाजिक सद्भाव का प्रतीक भी है। इस मेले में सभी धर्मों और वर्गों के लोग समान रूप से भाग लेते हैं। मेले में स्वास्थ्यवर्धक औषधियों के साथ-साथ घरेलू वस्तुएं जैसे दौरा, सूप, चलनी, चौका-बेलन और बांस से बनी टोकरी भी आसानी से मिल जाती हैं।