
हर्यो सखि मो मन मोहन-लाल यह भक्ति-रस से भरी पंक्ति ह्रदय को कृष्ण-प्रेम की गहराइयों में ले जाती है। इसमें गोपियों का वह भाव है जहाँ वे अपने प्रियतम श्यामसुंदर को पुकारती हैं और उनके आकर्षण में बंधकर संसार से विरक्त हो जाती हैं। यह वाक्यांश मन को मोह लेने वाले श्रीकृष्ण की उस छवि को सजीव करता है, जिसमें प्रेम, माधुर्य और आत्मिक समर्पण की पूर्णता दिखाई देती है।
Haryo Sakhi Mo Man-Mohan Laal
र्यो सखि, मो मन मोहन-लाल।
हौं यमुना-तट गई भरन घट, पनघट मिल्यो गुपाल।
सुघर सलोना, नंदडुठोना, टोना किय ततकाल।
परी ठगोरी, रति-रस बोरी, भोरी हौं ब्रजबाल।
नैन निगोरे, अति बरजोरे, जोरे नात रसाल।
अब मोहिं पल पल, परत न कहुँ कल, जलभर नैन विशाल।
अनजाने कृपालु मनमाने, ठाने हठ अस हाल॥
भावार्थ – (एक सखी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम मधुर मिलन एवं उसका एक सखी से कहना।)
अरी सखी! आज तो मनमोहन ने मेरा मन हर लिया है। मैं यमुना के किनारे जल भरने गई थी कि अचानक पनघट पर, वह छलिया मिल गया। अत्यन्त ही सुन्दर उस नंद के ढोटा ने तत्क्षण ही कुछ टोना सा कर दिया। मैं भोली- भाली गोपी उसकी ठगाई में आकर, उसके प्रेम में विभोर हो गई। इन हठीले नेत्रों ने भी हठपूर्वक उससे सदा के लिए परम मधुर नाता जोड़ लिया। अब उसके वियोग में एक-एक क्षण मुझे दुःखदाई हो रहा है एवं मेरी आँखों में बार-बार आँसू भरे जा रहे हैं।श्री कृपालु जी कहते हैं कि अरी सखी! जो भी बिना समझे-बूझे मनमाने ढंग से ऐसा चांचल्यपूर्ण हठ कर डालती है, उसकी ऐसी ही दशा होती है।
हर्यो सखि मो मन मोहन-लाल का स्मरण भक्त के अंतरमन को कृष्णमय कर देता है। यह पंक्ति केवल एक गीत नहीं, बल्कि वह पुल है जो आत्मा को श्यामसुंदर की ओर खींच लाता है। जब इसे गाया या सुना जाता है, तो प्रतीत होता है मानो गोपियों का वह हृदयस्पर्शी विरह और प्रेम हमारे सामने प्रत्यक्ष हो रहा हो। यही कारण है कि यह भजन भक्त के जीवन को श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं और उनके अनुपम प्रेम से भर देता है।

