साल 2025 में प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन होने जा रहा है। यह आयोजन न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए एक अद्वितीय धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सव है। कुंभ मेले को दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से हिस्सा लेने आते हैं। इस मेले की खास बात शाही स्नान है, जो अखाड़ों के नागा साधुओं द्वारा किया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अखाड़ा क्या है और इसकी परंपरा कैसे शुरू हुई? इस लेख में हम आपको अखाड़ों की उत्पत्ति, उनके महत्व और महाकुंभ में उनकी भूमिका के बारे में विस्तार से बताएंगे।
क्या है अखाड़ा?
अखाड़ा साधु-संतों के समूह को कहा जाता है। यह केवल एक धार्मिक संस्था नहीं, बल्कि साधुओं का वह संघ है जो शास्त्र और शस्त्र दोनों में निपुण होता है। अखाड़ा शब्द की उत्पत्ति के बारे में कई मत हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह ‘अक्खड़’ शब्द से निकला है, जबकि कुछ इसे ‘आश्रम’ शब्द से जोड़ते हैं। हालांकि, मुगलकाल के दौरान इस शब्द का ज्यादा चलन शुरू हुआ। इससे पहले साधुओं के समूह को ‘बेड़ा’ या ‘जत्था’ कहा जाता था।
धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो अखाड़े साधुओं के उन संगठनों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने ज्ञान, पराक्रम और शस्त्र विद्या का उपयोग करते हैं। भारत में कुल 13 प्रमुख अखाड़े हैं, जिनमें सबसे पुराना अखाड़ा ‘आवाहन अखाड़ा’ माना जाता है। हर अखाड़े का अपना अलग इतिहास और पहचान है, लेकिन इन सभी का उद्देश्य एक ही है—धर्म और संस्कृति की रक्षा।
अखाड़ों की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई?
अखाड़ों की परंपरा की शुरुआत 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। उस समय भारत पर बाहरी आक्रमणों का खतरा था और देश को धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से सुरक्षित करने की आवश्यकता थी। आदि शंकराचार्य ने धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र में निपुण साधुओं के समूह बनाए। इन समूहों का उद्देश्य न केवल धर्म की रक्षा करना था, बल्कि जरूरत पड़ने पर बाहरी आक्रमणों का मुकाबला भी करना था।
आदि शंकराचार्य ने साधुओं को केवल साधना और तपस्या तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देकर राष्ट्र की रक्षा के लिए तैयार किया। यही परंपरा बाद में अखाड़ों के रूप में विकसित हुई। इन अखाड़ों में साधु न केवल धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते थे, बल्कि युद्धकला और शस्त्र संचालन में भी पारंगत होते थे।
अखाड़ों का महत्व और भूमिका
अखाड़े केवल धार्मिक संस्थाएं नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इनका महत्व महाकुंभ और अर्धकुंभ जैसे आयोजनों में और बढ़ जाता है। महाकुंभ में अखाड़ों की भूमिका बेहद खास होती है। शाही स्नान के दौरान सबसे पहले अखाड़ों के नागा साधु गंगा में डुबकी लगाते हैं। इसे धार्मिक दृष्टि से बेहद पवित्र माना जाता है। नागा साधु अखाड़ों के सबसे प्रमुख सदस्य होते हैं। वे तपस्वी जीवन जीते हैं और कठोर साधना करते हैं।
महाकुंभ में अखाड़ों के नागा साधुओं की शोभायात्रा एक बड़ा आकर्षण होती है। यह यात्रा शाही स्नान से पहले निकाली जाती है, जिसमें अखाड़ों के साधु अपने शस्त्र और पारंपरिक वेशभूषा के साथ हिस्सा लेते हैं। यह यात्रा भारतीय संस्कृति और परंपरा का जीवंत उदाहरण होती है।
अखाड़ों का वर्तमान स्वरूप
आज के समय में भी अखाड़ों की परंपरा जीवित है। हालांकि, इनकी भूमिका में कुछ बदलाव जरूर आया है। अब अखाड़े केवल धर्म और संस्कृति की रक्षा तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज में जागरूकता फैलाने का भी काम करते हैं। कई अखाड़े शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं।
भारत में 13 प्रमुख अखाड़े हैं, जिन्हें तीन भागों में बांटा गया है—शैव, वैष्णव और उदासीन अखाड़े। शैव अखाड़े भगवान शिव के उपासक हैं, जबकि वैष्णव अखाड़े भगवान विष्णु की आराधना करते हैं। उदासीन अखाड़े गुरुनानक देव के उपदेशों का पालन करते हैं।
महाकुंभ 2025 में अखाड़ों की भूमिका
साल 2025 में प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन 13 जनवरी से शुरू होकर 26 फरवरी को समाप्त होगा। इस दौरान 26 जनवरी को शाही स्नान का आयोजन होगा, जिसमें अखाड़ों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शाही स्नान का दृश्य अत्यंत भव्य और अलौकिक होता है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु गंगा में डुबकी लगाकर अपनी आस्था प्रकट करते हैं, लेकिन शाही स्नान की शुरुआत अखाड़ों के नागा साधुओं से होती है।
अखाड़ों के साधु इस दौरान अपनी परंपरागत वेशभूषा और शस्त्रों के साथ गंगा किनारे पहुंचते हैं। उनके साथ भव्य झांकियां होती हैं, जो महाकुंभ की शोभा बढ़ाती हैं। यह आयोजन भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक अद्वितीय उदाहरण है, जो पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करता है।