आईआईटी (बीएचयू) के शोधकर्ताओं ने विकसित की डुअल-टारगेट लिपोसोमल दवाएं
वाराणसी- कालाजार के उपचार के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक उपलब्धि के तहत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बीएचयू,) वाराणसी के शोधकर्ताओं ने आईआईटी गुवाहाटी के साथ मिलकर डुअल-टारगेट लिपोसोमल दवाएं विकसित की हैं, जो इस घातक और उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग के इलाज को पूरी तरह से बदल सकती हैं। यह महत्वपूर्ण खोज हाल ही में प्रतिष्ठित Journal of Drug Delivery Science and Technology में प्रकाशित हुई है। इस अनुसंधान का नेतृत्व आईआईटी (बीएचयू) के जैव रासायनिक अभियांत्रिकी के प्रो. विकाश कुमार दुबे और आईआईटी गुवाहाटी से संबद्ध प्रो. शंकर प्रसाद कन्नौजिया ने किया। शोधकर्ताओं द्वारा डिजाइन किए गए दो सिंथेटिक यौगिक—ZINC000253403245 और ZINC000008876351—दो प्रमुख एंजाइमों, आयरन सुपरऑक्साइड डिस्म्यूटेज ए (FeSODA) और ट्रायपेनोथायोन रिडक्टेज़ (TryR) को रोकने में सक्षम हैं, जो Leishmania donovani परजीवी की जीवित रहने की क्षमता के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इन यौगिकों की विशेषता यह है कि ये परजीवी पर दो मोर्चों से एक साथ वार करते हैं, जिससे उपचार की सफलता की संभावना बढ़ जाती है और दवा प्रतिरोध के खतरे में उल्लेखनीय कमी आती है। प्रमुख शोधार्थी और आईआईटी (बीएचयू) एवं आईआईटी गुवाहाटी के संयुक्त पीएचडी छात्र कुशल बोरा ने बताया कि इन दोनों एंजाइमों को एक साथ लक्षित करना परजीवी की एड़ी पर वार करने जैसा है। इस नवाचार की एक और विशेषता यह है कि इन यौगिकों को पॉलीमर आधारित लिपोसोम के जरिये संलग्न किया गया है—यह एक अत्याधुनिक दवा वितरण प्रणाली है जो लक्षित उपचार और नियंत्रित दवा मुक्त करने की क्षमता प्रदान करती है। इससे दवा की प्रभावशीलता में भारी वृद्धि हुई है और साथ ही यह स्वस्थ कोशिकाओं पर इसके हानिकारक प्रभाव को भी कम करती है। प्रयोगशाला परीक्षणों के दौरान इन लिपोसोमल दवाओं ने अत्यधिक उत्साहजनक परिणाम दिखाएZINC000253403245-लिपोसोम का IC50 मान 7.52 μM से घटकर 3.93 μM हो गया, जबकि ZINC000008876351-लिपोसोम का IC50 मान 24.82 μM से घटकर केवल 9.62 μM हो गया। ये परिणाम दर्शाते हैं कि पारंपरिक उपचारों की तुलना में ये लिपोसोमल दवाएं अधिक प्रभावी और सुरक्षित हैं, जो अक्सर गंभीर दुष्प्रभावों या बढ़ते प्रतिरोध से जूझते हैं। इसके अलावा, यांत्रिक अध्ययन से यह भी सामने आया कि इन दवाओं ने परजीवियों में माइटोकॉन्ड्रियल झिल्ली को विक्षेपित किया और फॉस्फेटिडिलसेरीन को बाह्यीकृत किया—ये दोनों संकेतक प्रोग्राम्ड सेल डेथ यानी ‘एपोप्टोसिस’ जैसे प्रभाव को दर्शाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि दवाएं अत्यंत लक्षित तरीके से परजीवी की आंतरिक जीवन प्रणाली को निष्क्रिय कर देती हैं। प्रो. विकाश कुमार दुबे ने इस शोध के वैश्विक महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि विश्सरल लीशमैनियासिस आज भी भारत, पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कई हिस्सों में एक गंभीर स्वास्थ्य चुनौती बनी हुई है। यह नवाचार विशेष रूप से सीमित संसाधनों वाले क्षेत्रों में इस बीमारी के अधिक प्रभावी और सुरक्षित प्रबंधन की संभावनाओं को उजागर करता है। अब अनुसंधान दल अगले चरण की तैयारी में है, जिसमें प्रीक्लिनिकल इन वायवो परीक्षण और तत्पश्चात मानव परीक्षण शामिल होंगे। इन प्रयोगशाला परिणामों को वास्तविक जीवन की चिकित्सा में बदलना ही टीम का अगला लक्ष्य है। ऐसे समय में जब कालाजार के पारंपरिक उपचार बढ़ते प्रतिरोध के कारण अप्रभावी होते जा रहे हैं, यह नवाचार नई उम्मीद की किरण लेकर आया है। आईआईटी (बीएचयू), वाराणसी के निदेशक प्रो. अमित पात्रा ने इस उपलब्धि पर गर्व व्यक्त करते हुए कहा, “आईआईटी (बीएचयू), वाराणसी की हमारी टीम द्वारा प्राप्त इस अद्वितीय शोध उपलब्धि पर हम अत्यंत गर्व महसूस कर रहे हैं। विश्सरल लीशमैनियासिस (कालाजार) के उपचार के लिए डुअल-टारगेट लिपोसोमल दवाओं का विकास एक प्रमुख वैज्ञानिक उपलब्धि है, जो संस्थान की नवाचार, शैक्षणिक उत्कृष्टता और सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।