
2005 में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में एक घटना घटी जिसने भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को उजागर किया। उस समय के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, जो अपने शांत और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण के लिए जाने जाते थे, इस घटना में एक प्रेरणादायक भूमिका निभाई।
डॉ. सिंह जेएनयू परिसर में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमा का अनावरण करने गए थे। उनके इस दौरे के दौरान वाम समर्थित छात्रों ने उनकी आर्थिक नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए काले झंडे दिखाए। यह घटना न केवल सुर्खियों में आई, बल्कि यह भी दर्शाया कि कैसे एक सशक्त नेता छात्रों के अधिकारों और प्रशासन के बीच संतुलन बना सकता है।
विरोध और कार्रवाई की शुरुआत
प्रधानमंत्री के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के तुरंत बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों पर कार्रवाई शुरू की। छात्रों को कारण बताओ नोटिस भेजे गए और कुछ छात्रों को दिल्ली पुलिस ने हिरासत में भी ले लिया। इस कठोर कदम ने विश्वविद्यालय परिसर में तनाव को और बढ़ा दिया।
हालांकि, इसके बाद जो हुआ, वह भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत रूप से इस मामले में हस्तक्षेप किया और तत्कालीन कुलपति बी.बी. भट्टाचार्य से छात्रों के साथ नरम रुख अपनाने का आग्रह किया।
मनमोहन सिंह का वॉल्टेयर उद्धरण
अपने भाषण में डॉ. सिंह ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर के शब्दों को उद्धृत किया: “मैं आपकी बात से सहमत नहीं हो सकता, लेकिन मैं इसे कहने के आपके अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा।” यह बयान उस समय और आज भी भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
डॉ. सिंह ने विश्वविद्यालय समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि हर सदस्य को सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए और सहिष्णुता के मूल्यों को आत्मसात करना चाहिए। उनका यह वक्तव्य इस बात का प्रतीक था कि एक लोकतांत्रिक समाज में असहमति और विरोध को जगह मिलनी चाहिए।
कुलपति और पीएमओ के बीच संवाद
उस समय के कुलपति बी.बी. भट्टाचार्य ने इस घटना के बारे में 2016 में एक साक्षात्कार में बताया था। उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से मुझे फोन आया, जिसमें मुझसे छात्रों के साथ नरमी बरतने को कहा गया।” डॉ. सिंह का सुझाव था कि छात्रों को चेतावनी देने के बाद ही छोड़ दिया जाए, क्योंकि विरोध करना उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। यह प्रधानमंत्री के एक दूरदर्शी और समावेशी दृष्टिकोण का प्रमाण था।
छात्रों की रिहाई और प्रशासन की भूमिका
पीएमओ के हस्तक्षेप के बाद, हिरासत में लिए गए छात्रों को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इस कदम ने प्रशासन और छात्रों के बीच संवाद की एक नई राह खोली। लेकिन भट्टाचार्य ने यह भी कहा कि आज’ के समय में, छात्रों और प्रशासन के बीच संवाद की कमी एक बड़ी समस्या बन चुकी है।
2016 का विवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस
जेएनयू पिछले एक दशक में विरोध प्रदर्शनों का केंद्र रहा है। 2016 में देशद्रोह के विवाद ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस को और तेज कर दिया। इस विवाद में शामिल छात्रों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच तनाव ने 2005 की घटना को फिर से चर्चा में ला दिया।
जेएनयू के पूर्व छात्र नेता उमर खालिद, जिन पर 2016 में देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ था, ने 2005 की घटना को याद करते हुए कहा, “प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने छात्रों के अधिकारों की रक्षा की थी।” उमर ने 2020 में एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा कि डॉ. सिंह ने अपने भाषण में वॉल्टेयर का उल्लेख करते हुए छात्रों के विरोध को लोकतांत्रिक अधिकार करार दिया।
एक उदार नेता का दृष्टिकोण
डॉ. मनमोहन सिंह ने इस घटना के जरिए यह साबित किया कि एक सशक्त नेता वही होता है जो असहमति और आलोचना को भी जगह देता है। उनका यह दृष्टिकोण केवल राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों का प्रतिबिंब था।
सार्वजनिक जीवन में सीख
डॉ. मनमोहन सिंह की इस घटना से एक महत्वपूर्ण संदेश मिलता है—लोकतंत्र केवल सहमति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह असहमति और संवाद को भी स्वीकार करता है।
92 वर्ष की आयु में उनके निधन के साथ, भारतीय राजनीति ने एक ऐसे नेता को खो दिया है, जो अपनी सादगी, विवेक, और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे।

